31 अक्तूबर 2017

चोट

गुमसुम पडी थी मुद्दतों से, शाख दिल की हिल गयी 
जो लाख टाली थी नजर, वो फिर नजर से मिल गयी 

सौ कोशिशों, सौ मरहमों से जख्म था भरने लगा 
इक जिक्र क्या उनका हुआ, वो चोट फिर से छिल गयी 

जकडे रखी थी नैन में इक ख्वाब की तितली हसीं 
भवरा भरम का क्या दिखा, पर फडफडाकर खुल गयी 

बेताब थे सब लोग सुनने, जब तलक लब थे सिले 
दुखडा जरा क्या गा दिया, उठकर भरी महफिल गयी 

वो इक सुहाना हादसा.. घटकर सदी भी हो चुकी 
पर आज भी उस सांझ की वो याद फिर से छल गयी 

- अनामिक 
(०६-३१/१०/२०१७)

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