अब तक न स्थिर जो हो सका, आए गए मौसम सभी
वो खुद-ब-खुद ही शांत हो जाता, न होता, क्या पता ?
पर चंद कंकड फेकने की तो किसी की थी खता
साबित न कुछ करना, न अब देनी दलीलें अनकही
जिसने शरारत की, उसे एहसास है, काफी यही
मालूम है तालाब को अपनी हदें, ना हो फिकर
उडने न देगा छींट भी तट पर खडे नादान पर
- अनामिक
(०७-११/०९/२०१७)
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