05 जनवरी 2017

बचपना

यूँ सूझा है आज बचपना, दर्या किनारे आया हूँ
बचपन के सब खेल सलोने यादों के संग लाया हूँ

देखो मेरा रेत का महल, सजा रही हैं शंख-सीपियाँ
लहरों की गोदी में तैर रही है वो कागज की नैया

वहा हवा संग गपशप करते उंगली से बांधे गुब्बारें
कैद बुलबुलों में साबुन के उडे जा रहे सपनें न्यारे

वहा गगन में मेघों के संग लडा रही है पेंच पतंग
नाम लिखे हैं साहिल पे जो, चूम रही है शोख तरंग

बचपन की उन यादों को बचपन में ही क्यों कैद रखे ?
क्यों न बडे होकर भी उनका नये सिरे से स्वाद चखे ?

- अनामिक
(१०/१२/२०१६ - ०५/०१/२०१७)

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