कैसे मिला फिर आज आने का महूरत है तुम्हे ?
अब आ गए संजोग से, तो चार पल संग बैठ लो
कुछ खैर मेरी पूछ लो, कुछ हाल अपना बाँट लो
मैं मन ही मन में रोज तुम से अनगिनत गप्पें करू
पर सूझ कुछ भी ना रहा, जब आज हो तुम रूबरू
बस काम की और काज की ही बात कब से चल रही
पर क्या करू ? तुमको अलग कुछ जिक्र ही भाता नही
जो बस चले मेरा अगर, दिन भर यही बैठे रहे
ना हो जुबाँ से बात भी, सब कुछ निगाहों से कहे
पर दो मिनट में तुम कहोगे, "देर काफी हो गयी"
तुम टोकने से पहले ही मैं खुद कहू, "निकले अभी"
अब उठ गए, तो सूझती हैं सैंकडों बातें भली
अफसोस, अब बस दो कदम पर है जुदा अपनी गली
मदहोश रह लू आज, ख्वाबों का खिला जो गुलसिताँ
आए न आए फिर कभी ऐसा महूरत, क्या पता ?
- अनामिक
(०२-०८/१२/२०१६)
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