18 अक्तूबर 2016

कत्ल

वो भी क्या दिन था.. बडा अजब.. यादगार था 
हुआ छुरी-बंदूक बिना ही दिल पे वार था 

समझ न आया, घायल किस हथियार ने किया 
शायद इक सूरत, हसी, अदा का शिकार था 

बचाव में मैं ढाल उठाने से पहले ही 
तीर नजर का इन आँखों के आरपार था 

मुझे इल्म था, कत्ल मेरा होनेवाला है 
मगर पसंद के हाथों मरने का खुमार था 

उसे देख जी भर सुकून से मर भी जाता 
धडकन अटकी थी, पर तब कातिल फरार था 

हक्काबक्का रह गयी भरी महफिल सुनके 
मरके भी वही नाम लब पे बारबार था 

सोचा, आखिर अब तो बंद कर ही लू आँखें 
पर उसका ही सपना पलखों पे सवार था 

- अनामिक 
(१५-१७/१०/२०१६) 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें