कभी उछलकर, कभी मचलकर मन छू लेती हैं लहरें
पर सागर जाने क्या भीतर राज़ छुपाए है गहरें
कंकड़ फैंके नाप रहा हूँ मैं पानी की गहराई
मोती निकले, या पत्थर, पर हाथ लगे बातें कोई
रोक रहे हैं आहट को भी काले बादल के पहरें
खारे पानी से सपनों की कैसे प्यास बुझाऊ मैं
घर न चले पंछी सवाल के, क्या उनको समझाऊ मैं
इस बेचैनी पर हसते हैं लहरों के लाखों चेहरें
- अनामिक
(०३/०९/२०१२ ११/०६/२०१३ २७/०२/२०१४)