27 जनवरी 2014

नजरें

नजर के पंछियों को इन दिनों इक प्यास रहती है
नजर झरना बने बस इक नदी की और बहती है

नजर की तितलियाँ इक फूल के चक्कर लगाती है
नजर सपने बुने, सोती न खुद, मुझको जगाती है

नजर की चौखटें पल पल किसीकी राह तकती है
किसीकी आहटों, परछाइयों से भी बहकती है


नजर सौ बार आते वो, नजर फिर भी नही मिलती
बिखेरू बीज, पर मुस्कान की कलियाँ नही खिलती

कभी टकरा गयी नजरे, पलख के दर न खुलते हैं
नजरअंदाज कर चुपचाप वो रस्ता बदलते हैं

नजर के तीर भी छोडू, निशाने पर न लगते हैं
करे वो बेरुखी के जख्म, आँखों में सुलगते हैं


समझ भी ले कभी वो शायरी खामोश नजरों की
सुनाई दे उन्हे भी गूँज अब बेचैन लहरों की

कभी इस और बसरा दे नजर की चाँदनी वो भी
इशारों में सही, कुछ बात कह दे अनसुनी वो भी

दुआ है, खत्म हो लुक्काछुपी का खेल नजरों का
शुरू हो इक नई दास्तान, होकर मेल नजरों का


- अनामिक
(जनवरी २०१३)