26 दिसंबर 2014

आले वादळ, गेले वादळ

आले वादळ, गेले वादळ, पण कुणासही कळले नाही
मोहरलेल्या बनात इवले पान सुध्दा सळसळले नाही

चिंब चिंब झरल्या धारा, पण धरणी होती तशी कोरडी
कुशीत मातीच्या दडलेले अत्तरही दरवळले नाही

किती उसळली लाट, तरीही निर्विकार अन्‌ स्तब्ध किनारा
कैक आर्जवे करुनीही त्याच्याशी नाते जुळले नाही

या ओठांनी स्मितहास्याचे मध मिसळू पाहिले कितीही
कडवटलेल्या त्या ओठांचे मौन मात्र विरघळले नाही

जिच्या स्मृतींची रोज पाखरे भिरभिरती अंगणात माझ्या
कधी तिच्या उंब-यात माझे नाव सुध्दा घुटमळले नाही

- अनामिक
(१५-२६/१२/२०१४)

30 अक्तूबर 2014

ऐ लौटती बरखा

ऐ लौटती बरखा जरा.. कुछ पल ठहर मेरी गली
महके, खिले बिन ही​ ​यहाँ मुरझा रही है इक कली ॥ धृ ॥

सावन​ ​गुजरता ही रहा, हर ओर तू जमकर गिरी
पर सि​​र्फ मेरी बाग में तूने नही दी हाज़िरी
कैसे खिले ​​बूँदों बिना प्यासी कली वो मनचली
ऐ लौटती बरखा जरा..                      ॥ १ ॥

अब लौटकर जाते हुए तो​ ​ये ​बुझा​ ​दे​ ​तिश्नगी
रिमझिम गिरा लड़ियाँ, कली को दे महकती जिंदगी
भर दे जमीं की गोद, पंखुड़ियाँ खिला दे मखमली
ऐ लौटती बरखा जरा..                      ॥ २ ॥

- अनामिक
(०३-३०/१०/२०१४)

02 सितंबर 2014

कुछ रुके अल्फाज

कुछ रुके अल्फाज हैं, तट पर लबों के हैं खडे
पर नदी खामोशियों की पार कर सकते नही

कुछ छुपे जज़बात हैं, झाँकें नजर की आड से
रंजिशों की सरहदों को लांघ पर सकते नही

कुछ अधूरे ख्वाब हैं, उडते गगन में रात भर
है अमावस, चाँद की परछाई भी मिलती नही

इक दबी मुस्कान है, कब से लगाए दस्तकें
बंद दिल में एक भी खिडकी मगर खुलती नही

बावरी इक आस है, तकदीर की दहलीज पर
दीप जितने भी सजाए, लौ मगर जलती नही

- अनामिक
(मार्च, ऑगस्ट २०१४)

11 अगस्त 2014

घोंसला

हमसफर, चल ढूँढने दुनिया, गगन के भी परे
पर लगाकर ख्वाब के उँची उडानें चल भरे
हो सितारों का नगर, संग बादलों का काफिला
चाँद-किरणों से बनाए इक सुनहरा घोंसला ।। धॄ ।।

चार तिनके तुम जुटाओ, चार तिनके मैं चुनू
तुम बटोरो चंद धागे, नर्म चादर मैं बुनू
तुम बनो उम्मीद मेरी, मैं तुम्हारा हौसला ।। १ ।।

हो कभी बारिश घनी, ढक लू तुम्हें पंखों तले
बूँद भी तुम पर गिरे ना, झेल लू खुद जलजले
य़ूँ तुम्हे थामू, रहे ना रूह का भी फासला ।। २ ।।

- अनामिक
(१०/०७/२०१४ - १०/०८/२०१४)

07 अगस्त 2014

तुम ही हो

रात-दिन दिल को सताए, वो हसीं ख्वाइश हो तुम
जिंदगी की धूप में उम्मीद की बारिश हो तुम
प्यास तुम, तुम ही सुकूँ, मीठी चुभन में तुम ही हो
दिल में धडकन की तरह हर पल जहन में तुम ही हो ॥ धॄ ॥

नींद घुलती है तुम्हारे ख्वाब में
आँख खुलती है तुम्हारी याद में
यूँ खुदा से तो न कुछ मांगा कभी
अब तुम्हे मांगा करू सौगाद में
चाँदनी में तुम, सुबह पहली किरन में तुम ही हो
दिल में धडकन की तरह हर पल जहन में तुम ही हो ॥ १ ॥

चंद घडियों की सुहानी साथ से
उम्रभर की आस दिल में जग गयी
भा गयी मासूम सूरत इस कदर
आँख को दीदार की लत लग गयी
झाँक लो इक बार मेरे अंतर्मन में तुम ही हो
दिल में धडकन की तरह हर पल जहन में तुम ही हो ॥ २ ॥

- अनामिक
(जून, अगस्त २०१४)

03 जून 2014

जंजीर

​मिलता न लडकर जंग भी जो दुश्मनों के तीर से
वो जख्म रांझे को मिला है दिल लगाकर हीर से

है रूबरू, पर बीच है दीवार सी खामोशियाँ
जब दिल करे, तो​ बात भी करनी पडे तसवीर से

इक नाम हाथों की लकीरों में लिखा है ही नही
ये जानकर भी खामखा लडता रहू तकदीर से

ये बंद गलियाँ छोड कबका ढूँढता मंजिल नयी
जकडा हुआ है दिल मगर उम्मीद की जंजीर से

- अनामिक
(२९/०५/२०१४ - ०३/०६/२०१४)

05 मई 2014

छंद नाही राहिला

गंध बकुळेच्या फुलांचा धुंद नाही राहिला
अन् मलाही हुंगण्याचा छंद नाही राहिला

रात्र झुरते एकटी, नसतो कुणीही सोबती
चंद्र ता-यांशी तिचा संबंध नाही राहिला

चिंब जो भिजवायचा, पाऊस तो झरतो जपुन
अन् हवेचा झोतही स्वछंद नाही राहिला

नांदतो कल्लोळ असुरी अंतरीच्या राऊळी
राम ना उरला इथे, गोविंद नाही राहिला

भासते ही वास्तवाची बंदिशाळा प्रिय अता
स्वप्नप्रासादात मज आनंद नाही राहिला

- अनामिक

28 अप्रैल 2014

ऐ खुदा

रात का चिलमन हटा दे, अब दिखा दे इक किरन
रहमतों की चाँदनी से झिलमिलाने दे गगन

दूर हो बादल-जमीँ के बीच की सब रंजिशें
पग जलाती रेत पर उम्मीद की हो बारिशें

चीर सन्नाटें घने गूँजे सुरों की बिजलियाँ
फिर सजे बगिया गुलों से, रंग भर दे तितलियाँ

बेजुबाँ सूरज के दिल की चाँद तक पहुँचे सदा
कुछ करिश्मा कर दिखा, सुन ले गुजारिश ऐ खुदा

- अनामिक
(११/०३/२०१४, २२/०४/२०१४, २८/०४/२०१४)

26 अप्रैल 2014

आहट नही है

थम सी गई है     जीवन कि नदिया
जब से किसी की  आहट नही है

प्यासे फिरे हैं      पंछी नजर के
दीदार का अब     पनघट नही है

सुनसान दिल है,  लडने, सताने
बातें, शरारत      नटखट नही है

बहते न आँगन    झोंके पवन के
अब छेडने को     वो लट नही है

इक याद भटके    कल के नगर में
पर रोज की वो    चौखट नही है

- अनामिक
(१५/०२/२०१३, २४/०४/२०१४, २५/०४/२०१४)

14 मार्च 2014

खबर ही नही है

बहाता रहे मेघ दिन रात बूँदे
जमीं पर भला कुछ असर ही नही है

भटकती फिरे रोज बेचैन तितली
कली को मगर कुछ खबर ही नही है

जले है दिया जूँझ कर आँधियों से
सितमगर खुदा को कदर ही नही है

छुपाए रखे लाख जज़बात पलखें
उन्हे पढ सके वो नजर ही नही है

- अनामिक
(१५/०१/२०१४ - १३/०३/२०१४)

06 मार्च 2014

न जाने

चला हूँ ढूँढने मंजिल, जहा तेरे ठिकाने हैं
मगर पाने तुम्हे चलने अभी कितने जमाने हैं

मुझे सूझे न इक तरकीब मिलने, बात करने की
तुम्हारे पास मुझको टालने के सौ बहाने हैं

लबों पर जिक्र भी मेरा कभी छिडने न देती हो
जुबाँ मेरी तुम्हारी तारिफों के ही तराने हैं

जतन कुछ भी करू, इक तीर भी पहुँचे न दिल के पार
सितारें भी दू तोहफे में, कहोगी ये पुराने हैं

करो, न करो मेहर, दिल से तुम्हारी ना ढले मूरत
बसा मंदिर तुम्हारे कौन पर ईश्वर न जाने है

- अनामिक
(२५/०२/२०१४ - ०६/०३/२०१४)

28 फ़रवरी 2014

गहराई

कभी उछलकर, कभी मचलकर मन छू लेती हैं लहरें
पर सागर जाने क्या भीतर राज़ छुपाए है गहरें

कंकड़ फैंके नाप रहा हूँ मैं पानी की गहराई
मोती निकले, या पत्थर, पर हाथ लगे बातें कोई
रोक रहे हैं आहट को भी काले बादल के पहरें

खारे पानी से सपनों की कैसे प्यास बुझाऊ मैं
घर न चले पंछी सवाल के, क्या उनको समझाऊ मैं
इस बेचैनी पर हसते हैं लहरों के लाखों चेहरें

- अनामिक
(०३/०९/२०१२ ११/०६/२०१३ २७/०२/२०१४)

25 फ़रवरी 2014

रात

नशे में है समंदर, चढ रही है रात धीरे से
महरबाँ चाँद रेशम की करे बरसात धीरे से

गगन कब से पुकारे, कान मूँदे है पडी धरती
लगे है टूटने तारा बने जज़बात धीरे से

उछलकर भी, मचलकर भी, कभी समझा सकी ना जो
किनारे से लहर अब कह रही वो बात धीरे से

सितारों में हुई कुछ गुफ्तगू किस्मत बदलने की
अधूरी दासताँ करने लगी शुरुवात धीरे से

- अनामिक
(२३-२५/०२/२०१४)

21 फ़रवरी 2014

अर्जी

कब से नजर में कैद थे, अब पार कर सब मुश्किले
पंछी सलोने ख्वाब के भरने उडानें हैं चले

कश्मकश की बंदिशों को तोड कर जज़बात अब
दहलीज दिल की लांघ कर पहुँची जुबाँ तक बात अब

सब जान कर भी ना बनो अंजान, सुन भी लो जरा
दिल की मुरादें पाक हैं, पहचान तुम भी लो जरा

इक बार सुन लो, फिर करो तय जो तेरी मर्जी
पर बिन पढे ही ना करो खारिज मेरी अर्जी

अर्जियाँ ही अर्जियाँ हैं अब तेरे दरबार में
कुछ सुना दे फैसला, इनकार या इजहार में

- अनामिक
(१४,२०,२१/०२/२०१४)

18 फ़रवरी 2014

कश्मकश

अजब सी कश्मकश है हर घडी, सुलझे न इक मुश्किल
खयालों का उठा तूफान है, बस में न अब है दिल
बसा है जो निगाहों में, करू कैसे उसे हासिल ?

रुकू उसके इशारे के लिए, या खुद करू शुरुवात ?
जुबाँ से छेड़ दू अल्फाज, या कर लू नजर से बात ?
दिखाऊ सिर्फ दोस्ती, या जताऊ मैं दबे जज़बात ?

रखू दर्म्यान कुछ दूरी, मिलू या रोज सुबहो-शाम ?
करू मैं जल्दबाजी, या जरासा सब्र से लू काम ?
समय की रेत फिसले हाथ से, निकले न कुछ अंजाम

करू मैं क्या जतन, जो कर सकू उसके जिया में घर ?
बिखेरू शायरी के रंग, छेडू बांसुरी के स्वर ?
लगे पर डर, कही उसका अलग ही तो नही ईश्वर ?

जताऊ तो भला कैसे, बताऊ तो भला कैसे ?
करू मैं दो दिलों के बीच का तय फासला कैसे ?
सुनहरी जिंदगी का हो शुरू तो सिलसिला कैसे ?

सुलझती है न ये उलझन..

- अनामिक
(३१/०१/२०१४ - १८/०२/२०१४)

27 जनवरी 2014

नजरें

नजर के पंछियों को इन दिनों इक प्यास रहती है
नजर झरना बने बस इक नदी की और बहती है

नजर की तितलियाँ इक फूल के चक्कर लगाती है
नजर सपने बुने, सोती न खुद, मुझको जगाती है

नजर की चौखटें पल पल किसीकी राह तकती है
किसीकी आहटों, परछाइयों से भी बहकती है


नजर सौ बार आते वो, नजर फिर भी नही मिलती
बिखेरू बीज, पर मुस्कान की कलियाँ नही खिलती

कभी टकरा गयी नजरे, पलख के दर न खुलते हैं
नजरअंदाज कर चुपचाप वो रस्ता बदलते हैं

नजर के तीर भी छोडू, निशाने पर न लगते हैं
करे वो बेरुखी के जख्म, आँखों में सुलगते हैं


समझ भी ले कभी वो शायरी खामोश नजरों की
सुनाई दे उन्हे भी गूँज अब बेचैन लहरों की

कभी इस और बसरा दे नजर की चाँदनी वो भी
इशारों में सही, कुछ बात कह दे अनसुनी वो भी

दुआ है, खत्म हो लुक्काछुपी का खेल नजरों का
शुरू हो इक नई दास्तान, होकर मेल नजरों का


- अनामिक
(जनवरी २०१३)